मित्र को पत्र

मित्र को पत्र

~ 1 ~


हम दोनों सायुज्य सखा थे, जैसा वेदों ने बतलाया,
एक साख पर दोनों बैठे, एक अंशी एक अंश कहाया |
तू तो मात्र रहा द्रष्टा ही, पर मैंने फल खाया,
फल खाकर के बना भोक्ता, कर्तापन गहराया |
अहंकार का बीज उगा और माया ने जाल बिछाया,
लोभ मोह और काम क्रोध ने मुझको घोर फंसाया |
बहुत बार तूने समझाया, पर मैं समझ न पाया,
भव सागर के भंवर चक्र में, गहरा आन समाया |
मेरी नादानी सह सहकर भी, तूने न बिसराया,
परम सखा, बस इसी बात पर, आज कंठ भर आया |
रुंधे गले और भरे ह्रदय से, अहोभाव में आया,
मित्र मेरे बस इसीलिए, अब कागज़ कलम उठाया |
बिना कहे ही सब कुछ जाने, तुझसे कौन दुराया,
इसीलिए तो घट-घट वासी, अंतर्यामी कहलाया |
पर तू तो सायुज्य सखा है, कहे बिन रहा न जाया,
इसीलिए आज कहूँगा वह सब, जो भी दिल में आया |


~ 2 ~

"अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है?" था किसी कवि ने गाया,
पर प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल ने, सच्चा हाल बताया |
सडकें, बिजली, स्वास्थ्य नहीं कुछ, न शिक्षा का साया,
ऐसे ही लाखों ग्रामों में से, जन्म एक में पाया |
खपरैलें लड़ती वर्षा से, शीत में जाड़ा छाया ,
ग्रीष्म में लू की लपटें झेलीं, ऐसा बचपन पाया |
कृषक पिता के धूल धूसरित, चरणों में शीश नवाया,
पढ़ा हुआ सब याद रहा, तो बुद्धिमान कहाया |
तूने जीवन भर बिन संसाधन, प्रथम स्थान दिलाया,
मैं मूरख तेरी महिमा को, फिर भी समझ न पाया |
एक पहुंचविहीन ग्राम से, तूने दिल्ली तक पहुँचाया,
तेरी कृपा सदा बरसी है, पर मैं समझ न पाया |
कृषक पुत्र इस ठेठ "गँवार" को, "गुदड़ी का लाल" बनाया,
पर परम सखे तेरी करुणा को, मैंने ही बिसराया |
तेरी सतत कृपा वर्षा का, सदा रहा मुझ पर साया,
दग्ध ह्रदय में इसीलिए तो, अहोभाव भर आया |


~ 3 ~

आजीविका की प्रबल दौड़ में, लाखों को गिरते पाया,
पर मुझको तो कृपा तेरी ने, सदा श्रेय दिलवाया |
एक नहीं, कई कई अवसर दे, तूने मान बढ़ाया,
फिर भी परम कृपा को तेरी, सखे समझ न पाया |
श्रेय मिले, सम्मान मिले, ऐसा जीवन पथ दिखलाया,
पर तेरी महिमा झुठलाकर, मैं झूठा इतराया |
अधिकारी बन राजदण्ड ले, था बेहद इठलाया,
राज्याधिकार के प्रबल दंभ ने, पाखंडों में उलझाया |
गर्वपूर्ण तर्जनी ऊँगली से, लोगों को नाच नचाया,
फिर भी तूने आँख न फेरी, अजब सखे तेरी माया |
भव सागर के भंवरों को जब जीवन का खेल बनाया,
कल्मष कषाय से रंग गयी चादर, जिसपर मैं इतराया |
तूने भेजे बहुत संदेशे, पर मैं तो था बौराया,
संदेशों की क्या बिसात, मैंने तुझको ही झुठलाया |
पतित हुआ जब शाश्वत पथ से, तब भी न शरमाया,
सच्चे मित्र तूने तो मुझको, फिर भी न बिसराया |


~ 4 ~

फिर एक दिन तेरी करुणा से, पौ फटी और दिन आया,
'लौट के बुद्धू घर आ जाए' ऐसा तूने मार्ग दिखाया |
जीवन का पूर्वार्ध गया, तब सही मार्ग को पाया,
परमारथ ही सच्चा स्वारथ है, समझ देर से आया |
तेरे पथ पर कदम बढ़ाते, डगमग डगमग आया,
लोभ, मोह, मद और मत्सर ने, बार बार भरमाया |
भव सागर के दल में फंसकर, क्या कोई निकल भी पाया,
पर यह तो तेरा ही संबल था, जिससे मैं बाहर आया |
जग में तो हँस हँस कर जीया, एकान्त में रोना आया,
अहंकार के नागपाश ने, बार बार बंधवाया |
भौतिकता की चकाचौंध से, जी भर के टकराया,
काम, क्रोध, मद, लोभ से जूझा, फिर भी मार न पाया |
ये तो मित्र तेरी ताकत थी, जो कुछ मैं कर पाया,
मैं अज्ञानी कृपा तेरी से, तुझे समझ अब पाया |
मैली चादर धोते धोते, थक कर शरण में आया,
अब तू तारे या तू मारे, तू जाने तेरी माया |


~ 5 ~

कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी, जोड़ जोड़ हर्षाया,
महल अटारी नौकर चाकर, देख देख इतराया |
फिर एक दिन तेरी ठोकर से, सत्य सामने आया,
जीवन ही जब है क्षण भंगुर, तब कहाँ टिकी रहे माया |
लगे बिछुड़ने संगी साथी, जिन पर था इतराया,
खो गयी चमक स्वर्ण की सारी, अब तो इसे लोष्ठवत पाया |
मित्र,बंधु, भगिनी, सुत, दारा, जिनसे था मोह बढ़ाया,
सब हैं इस काया के साथी, काया के रहते तक माया |
मिट्टी को मिट्टी में जाना, था यह सत्य भुलाया,
जीव का साथी एक तू ही है, परम सखा कहलाया |
तू असीम है, तू अनादि है, घट-घट मध्य समाया,
परम श्रेष्ठ तू, परम सत्य तू, सब तेरी ही माया |
तू ही सत है, तू चेतन है, परमानन्द कहाया,
तेरे चिंतन से जीवन में, बस आनंद समाया |
यद्यपि मैं सायुज्य सखा हूँ, माया में था भरमाया,
पर जैसा हूँ, बस तेरा हूँ, शरण तेरी ही आया |


~ 6 ~

भरे ह्रदय, अवरुद्ध कंठ से, एक यही विनती मेरी,
बस अहोभाव से धन्यवाद है, और नहीं इच्छा मेरी |
सब कहते हैं, दीन हीन के अश्रुनीर में सदा उपस्थिति तेरी,
पतितों की संताप पीर में, कभी ना करता देरी |
जब मैं जागा हुआ सवेरा, तब ही आँख खुली मेरी,
घोर निशा में हुई चूक की, क्षमा प्रार्थना यह मेरी |
अब तो सत्य मुझे कहने दे, जीवन रहा झूठ की ढेरी,
झूठ सत्य की बात कहाँ, जब हो गयी कृपा तेरी |
तू दीनानाथ है, दीनबंधु है, बहुत सुनी महिमा तेरी,
पतित पावन कहलाता है तो कर अब पवनी मेरी |
जितना चाहूँ रुदन करूँ मैं, यह तो मर्ज़ी मेरी,
जी भर अश्रु बहा लेने दे, बह जाए भूलों की ढेरी |
तू परमात्मा मैं जीवात्मा, बस इतना भेद हुआ बैरी,
करके मिलन 'एक' ही कर दे, रहे ना अब तेरी मेरी |
परम सखा अब यही विनय, सुन ले विनती मेरी,
फिर से तू सायुज्य बना ले, बैठूं ड्योढ़ी तेरी ||







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