कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं होता

कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो |

समाज में व्याप्त बुराइयों को कोसने में हम कभी पीछे नहीं रहते, लेकिन मात्र कोसने से बुराइयां समाप्त नहीं हो सकतीं | उनको उखाड़ फेंकने के लिए उनसे जूझना पड़ता है, परन्तु जब जूझने की बात आती है तो हम स्वयं आगे न आ पाने के पर्याप्त कारण खोज लेते हैं | हम सभी चाहते हैं की हमारे देश में सरदार भगत सिंह जैसे वीर शहीद पुनः जन्म लें, परन्तु हम यह भी चाहते हैं कि वे हमारा घर छोड़कर दूसरों के घरों में पैदा हों | अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि समाज में नैतिकता का राज्य हो, परन्तु इसके लिए प्रयास करने में ज़्यादातर लोग पीछे हो जाते हैं और चाहते हैं कि दूसरे ही सब कुछ ठीक कर देंगे | इसके लिए वे पर्याप्त बहाने भी गढ़ लेते हैं, जैसे कि कोई हमारी बात ही नहीं सुनता, सारा ज़माना ही खराब है, हम अकेले भला क्या कर सकते हैं? हम तो बुराइयों से बचे हुए हैं, फिर हमें क्या करना है? हम अच्छे लोग हैं, इन पचड़ों में फंसकर हम अपनी सुख शान्ति क्यों भंग करें? बुरे लोग ताकतवर होते हैं, उनसे टकराकर मुसीबत क्यों मोल लें? इत्यादि | परन्तु दूसरी ओर जो लोग बुराइयों से लड़ना चाहते हैं उनके पास इससे लड़ने के उतने ही कारण होते हैं | जैसे अपने पडोसी के घर में लगी आग को न बुझाकर भला हम अपना घर सुरक्षित कैसे बचा पायेंगे, परमात्मा ने हमें दूसरों से अधिक बुद्धि, बल, धन व सामर्थ्य प्रदान कि है तो उसका उपयोग हम दूसरों कि भलाई में न कर भला कृतघ्न क्यों कहलायें? इत्यादि | इस तरह का चिंतन एवं तदनुसार क्रियान्वयन करने वाले नरश्रेष्ठ शूरवीर यद्यपि विरले ही होते हैं, तथापि जो भी इस क्षेत्र में अग्रणी होते हैं, वे परमार्थ पथ में किये गए कार्यों से न केवल आत्म संतोष प्राप्त करते हैं, अपितु इतिहास पुरुष बनकर पीढ़ी दर पीढ़ी गौरव भी पाते हैं |

वास्तव में बुराई तभी तक ताकतवर दिखती है, जब तक उससे टकराया नहीं जाता, परन्तु जब थोड़े से भी भावनाशील प्राणवान लोग संगठित होकर उसके खिलाफ प्राणपण से जुट पड़ते हैं तो उसका विनाश किस प्रकार आसान हो जाता है, इस सन्दर्भ में एक प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत है :-
भारतवर्ष का ह्रदय प्रदेश है मध्य प्रदेश और इस मध्य प्रदेश का ह्रदय स्थल है नरसिंहपुर जिला | वैसे तो इस जिले को माँ नर्मदा ने अपनी जलोढ़ व उपजाऊ मिटटी के द्वारा धनधान्य से संपन्न बनाया है, परन्तु यहाँ के निवासी भी देश के अन्य भागों में निवासरत करोड़ों अन्य ग्रामीण लोगों की तरह नशाखोरी, आपसी वैमनस्य, झगडा, फसाद व मुकदमेबाजी आदि के मकड़जाल में फंसकर दुःख दारिद्र्य को आमंत्रित करते जा रहे थे |

इन्ही नशे व कुरीतियों से ग्रसित ग्रामों में से एक ग्राम बिजौरा का कायाकल्प करने का संकल्प ग्राम के नवयुवकों द्वारा लिया गया | यह ग्राम पक्की सड़क से लगभग ६ किमी दूर बसा है तथा वर्षाकाल में शेष संसार से कट जाता है | बीमारी में मरीज़ को चार लोग अर्थी कि तरह खाट पर डालकर पक्की सड़क तक लाते थे | ग्राम में करीब ३० व्यक्ति अफीम व ब्राउन शुगर के नशेडी थे तथा लगभग ६०-७० व्यक्ति शराबी थे | कुछ लोग गांजा भांग का भी सेवन करते थे | इसके अलावा बीडी, तम्बाखू, गुटखा आदि का सेवन तो प्रायः प्रत्येक घर में होता था | नशे के साथ ही जुआ, सट्टा, झगडे, फसाद, मुकदमेबाजी आदि के प्रकोप से सम्पूर्ण ग्राम पीड़ित था | नवयुवक वर्ग नशे की गिरफ्त में आता जा रहा था | धन व मानव श्रम की बर्बादी इन दुर्व्यसनों में होने के कारण ग्राम की कृषि, असिंचित व कम उपजाऊ होकर रह गयी थी | ग्राम कि इस भयावह स्थिति के कारण कोई इस ग्राम में अपनी बेटी देने को तैयार नहीं था तथा ग्राम के अधिकाँश नवयुवक कुंवारे ही घूम रहे थे | इस तरह सम्पूर्ण ग्राम में दुःख दारिद्र्य व नैराश्य छाया हुआ था | इन परिस्थितियों में कुछ नवयुवकों ने गायत्री परिवार के साथ मिलकर इस ग्राम का कायाकल्प करने का संकल्प लिया |

नवम्बर २००४ में ग्राम के मंदिर में सदबुद्धि की अधिष्ठात्री भगवती गायत्री की प्राण - प्रतिष्ठा की गयी तथा गायत्री यज्ञ सम्पादित कर लोगों को संगठित होने हेतु भाव संवेदना जगाई गयी | तत्पश्चात ग्राम में युवा प्रज्ञा मंडल तथा महिला मंडल का गठन किया गया | महिला मंडल द्वारा जहां एक ओर छोटे छोटे द्वीपयज्ञों कि श्रंखला चलाकर नारी शक्ति का जागरण किया गया, वहीँ दूसरी ओर युवा प्रज्ञा मंडल द्वारा दैनिक प्रभात फेरी, साप्ताहिक संकीर्तन तथा नियमित नशा मुक्ति रैलियों का आयोजन किया गया | युवा प्रज्ञा मंडल का ग्राम रक्षा समिति के रूप में पुलिस विभाग में विधिवत पंजीयन कराया गया तथा समिति के सभी सदस्यों को पुलिस अधीक्षक द्वारा पुलिस मित्र की मान्यता देते हुए परिचय पत्र प्रदान किये गए | पुलिस अधिकारियों तथा जनप्रतिनिधियों को श्रेय व सम्मान देकर उनका सहयोग प्राप्त किया गया | समिति द्वारा अफीम व ब्राउन शुगर के अत्यधिक एडिक्ट दस मरीजों को जबलपुर के सद्भाव नशामुक्ति केंद्र में एक माह तक उपचार हेतु भर्ती कराया गया | शेष सभी सामान्य नशेड़ियों को नशा छोड़ देने अथवा जेल भिजवा देने की समय-सीमा दी गयी | समिति के सदस्यों ने ग्राम में बनने वाली देशी शराब तथा बाहर से आने वाली विदेशी शराब, अफीम तथा ब्राउन शुगर का ग्राम में क्रय - विक्रय तथा सेवन करना पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया तथा अथक परिश्रम कर इस पर लगातार निगरानी रखी | कुछ नशामुक्त भाइयों ने न केवल पुलिस की मदद कर नशे के मुख्य व्यापारी को एक करोड़ बीस लाख रूपये की ब्राउन शुगर (नशा) सहित पकड़वा दिया अपितु इसका पूरा श्रेय पुलिस विभाग को दे दिया | इस तरह सम्पूर्ण क्षेत्र में नशे की आपूर्ति बंद हो गयी | समिति के अनुरोध पर ग्राम के अनेक भाई - बहिनों ने बीडी, तम्बाखू, गुटखा आदि का सेवन स्वेच्छा से बंद कर दिया और ग्राम न केवल पूर्णतः नशामुक्त हो गया अपितु आसपास के दर्जनों ग्रामों के लिए आदर्श बन गया |

एक वर्ष के अन्दर ही ग्राम में आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने को मिलने लगे | ग्राम के व्यक्तियों द्वारा प्रतिवर्ष नशे में लगभग चौदह लाख रूपये की राशि व्यय की जाती थी, जिसकी बचत होने से ग्राम में पंद्रह नए कुएं खोदे गए तथा दस बोरवेल किये गए | पच्चीस सिंचाई के मोटर पम्प क्रय किये गए | इस प्रकार लगभग आधी ज़मीन सिंचित हो गयी, जिससे वर्षा आधारित फसलों के स्थान पर गन्ना जैसी नगदी फसल पैदा की जाने लगी | मानव शक्ति जो कि नशे के अड्डों पर बर्बाद हो रही थी, खेतों में काम करने लगी | व्यस्तता बढ़ जाने से ग्राम में जुआ, सट्टा, झगडा, फसाद स्वतः ही समाप्त हो गए | ग्राम की संगठित इच्छा शक्ति को देखते हुए जनप्रतिनिधियों ने भी विकास की गंगा इस ग्राम की तरफ बहा दी और ग्राम को मुरम मार्ग के द्वारा पक्की सड़क से जोड़ दिया गया | ग्राम में सामुदायिक भवन, विद्यालय का नया कक्ष तथा सीमेंट सड़कों का निर्माण किया गया | स्वच्छ पेयजल हेतु हैण्डपम्प सुधार दिए गए | इस प्रकार ग्राम का कायाकल्प हो गया | वर्तमान में ग्रामवासियों ने आपसी सहयोग से पांच कमरे के एक सर्वसुविधायुक्त पक्के शाला भवन का निर्माण किया है जिसमें शीघ्र ही हाई स्कूल प्रारंभ होने जा रहा है |

उपरोक्त प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि छोटे से संगठित प्रयास से ही बुराइयों कि रेत का महल भरभरा कर गिर जाता है | वास्तव में बुराइयों का अस्तित्व तभी तक है, जब तक कि अच्छे लोगों ने संगठित होकर उनके खिलाफ मोर्चा न खोल दिया हो | अतः अब समय आ गया है कि युगधर्म की मांग के अनुकूल अच्छे लोग संगठित हों तथा अपने आसपास सडांध मार रही बुराइयों की सफाई कर अपना व दूसरों का जीवन सुखी बनायें तथा पुण्य व श्रेय के भागीदार बनें |

"परमार्थ पथ के हे पथिक "



परमार्थ पथ के हे पथिक,

अभी तो पार करने हैं , अगम पथ इन पगों से ही।
इन पगों को और गतिमान, करने की जरुरत है॥
अभी हर कंठ को सन्देश देना है मधुरता का ,
अभी हर आँख को गम देख , नम होना सिखाना है ।
सभी बाहें करें प्रण , दीन दुखियों की सुरक्षा का ,
कि है इंसानियत जिन्दा, ज़माने को दिखाना है ।
अभी तो हो रही प्रारंभ , जगत हित की कहानी ही ,
जगत हित की कहानी को , आगे बढाने की जरुरत है॥

अभी तो भरे ही हैं नए युग की नीव में पत्थर ,
सभी अपना कहें जिसको , भवन ऐसा बनाना है ।
सभी इंसान जिसमे रह सकें, इंसान बनकर ही ,
नया संसार ऐसा प्यार का , हमको बनाना है ।
नहीं यह कल्पना बल्कि , सचाई है नए युग की ,
नए युग की इमारत को सजाने की जरुरत है ॥
न जब तक लक्ष्य पर पहुचे , थकन कैसी घुटन कैसी ,
किनारे बैठना थककर , कायरों की निशानी है ॥

है जवानी वह जो लगा दे आग पानी में, जरुरत पर ,
परमार्थ पथिकों की धरा पर, सदा रहती कहानी है ॥
सृजन शेष है , युग विशेष है, है यही युग धर्म की चाहत ,
अभी तो नव निर्माण की गंगा बहाने की जरुरत है !!

१४/०४/०७



" इच्छाएं अनेक : समाधान एक "


बर्षा में सूखे की चाहत ,
सूखे में बर्षा के गीत ।
सर्दी में गर्मी की इच्छा ,
गर्मी में मिल जाये शीत ।
तेरी विपरीत चाहतों का , है कोई पारावार नहीं।
ईश्वर को ठहराता दोषी , करता
स्वयं विचार नहीं ।

जब रहता खेत कछारों में ,
तब शहरी चकाचौंध की चाह।
शहरों के रेल पेल धक्कों में ,
भरे ग्राम्य - जीवन की आह ।
चंचल मन के अनेक सपने , हो सकते साकार नहीं !
हर एक की हर मनोकामना , ले सकती आकार नहीं ॥
ईश्वर को
ठहराता दोषी , करता स्वयं विचार नहीं ।

मछुआरा सागर में सोचे ,
लांघ सकूँ पर्वत शिखरों को !
पर्वतीय की प्रबल कामना ,
चीर सकूँ सागर लहरों को ।
अंत नहीं पर्वत शिखरों का , सागर भी कम विस्तार नहीं ।
इच्छाएं अपनी सीमित करने का, करता कभी विचार नहीं ॥
ईश्वर को ठहराता दोषी , करता
स्वयं विचार नहीं ।

न कहीं दुःख है , न कहीं सुख है ,
सब है यह मन का व्यवहार ।
मन पर जिस दिन कसा शिकंजा ,
खुल जाये मुक्ति का द्वार !
प्रक्रति की प्रतिकूलताओं को, करता क्यों स्वीकार नहीं !
सारे जग को बदलना चाहे ,
स्वयं बदलने तैयार नहीं ॥

ईश्वर को ठहराता दोषी , करता
स्वयं विचार नहीं ।
नश्वर में मन , मोह लगाता ,
क्षण भंगुर से प्रीति बढाता।
माया के जब झटके खाता,
हाय हाय करके चिल्लाता।
सुख दुःख राग द्वेष से हटकर, करता कभी विचार नहीं ।
मिथ्या और सत्य समझे बिन , होगा शाश्वत साकार नहीं ॥
ईश्वर को ठहराता दोषी , करता
स्वयं विचार नहीं ।।
०७/०७/२०१०

"नमामि देवी नर्मदे "


सौंदर्य की नदी नर्मदा , मध्यप्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा , जीवन में उत्सव की प्रतीक नर्मदा , अनगढ़ पत्थरों को नर्मदेश्वर बनाने वाली नर्मदा , ऋषि - महर्षियों की तपःस्थली नर्मदा और ना जाने कितने अलंकारों से विभूषित नर्मदा , वास्तव में एक नदी ही नहीं है अपितु आदि मानव से लेकर मशीनी मानव तक लाखों मनुष्यों , पशुओं , पौधों , जीव जंतुओं की जीवन दायिनी माँ भी है !

अप्रतिम सौंदर्य की धनी , घनघोर वनों, पर्वत पहाड़ों को चीरकर उछलती - कूदती नर्मदा , पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली एकमात्र बड़ी नदी है ! प्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमृतलाल बेगड़ ने इसे संस्कृतियों की जननी के रूप में देखा है ! इसके किनारों पर बसने वाले गोंड , भील , बैगा, कोरकू , ढीमर आदि बनवासी लोगों की सांस्कृतिक धरोहर को अनुभूत करने के लिए नर्मदा की परिक्रमा की जाती है !

मध्यप्रदेश के शहडोल जले में स्थित मैकल पर्वत श्रेणी की अमरकंटक चोटी से निकलकर गुजरात राज्य में खम्भात की खाड़ी में समुद्र से मिलने वाली नर्मदा नदी की लम्बाई लगभग १३२१ कि . मी . है ! परन्तु मध्य भारत के हजारों श्रद्धालु इस नदी की पूरी लम्बाई में परिक्रमा करते हैं !! इन्हें यहाँ परकम्मा वासी (परिक्रमा वासी ) कहा जाता है । ये परकम्मा वासी माँ नर्मदा की आरती करते हुए गा उठते हैं "निकली जल धार जोर , पर्वत पहाड़ फोड़ , दुष्ट दलन गर्व तोड़ , प्रकटी महारानी " जय जय जगदम्बे मातु नर्मदा भवानी "!!!

नर्मदा संघर्षमय जीवन की प्रतीक है ! पूर्व से पश्चिम की ओर ढाल के विपरीत बहते हुए इसने अनेक स्थानों पर पहाड़ों को काटा है तथा अनेक झरने बनाये हैं ! कपिल धारा के पास अमरकंटक चोटी से सैकड़ों फूट नीचे छलांग लगाती हुई नन्ही पतली सी धार दूध के झरने के सामान दिखाई देती है अतः इसे दूध धारा भी कहते हैं! मंडला के पास बंजर नदी के संगम के नीचे सहस्त्र धारा प्रपात में उछलती कूदती सी आगे चलकर नर्मदा जबलपुर के पास " धुआंधार " नामक प्रसिद्ध प्रपात बनाती है ! यहीं भेडाघाट नामक स्थान पर नर्मदा ने संगमरमरी सुरम्य चट्टानों को जिस खूबसूरती से काटा है वह देखने लायक है ! यहाँ चांदनी रात में नौका विहार जग प्रसिद्ध है ! नरसिंहपुर जिले में सांकल घाट पर हिरन नदी के संगम के पास , ब्रहमाण घाट में, होशंगाबाद के सेठानी घाट में एवं महेश्वर के घाटों पर ठहरी हुई सी बहती नर्मदा मदमस्त दिखाई देती है !

जबलपुर से प्रारंभ होने वाली नर्मदा की घाटी गुजरात राज्य की सीमा तक लगभग ३२० कि . मी . लम्बे कछारों का निर्माण करती है ! इसके दोनों ओर विन्ध्याचल तथा सतपुड़ा की पर्वत मालाएं इसके साथ साथ पूर्व से पश्चिम कि ओर चलती हैं ! इन पर्वत मालाओं की उपत्तिकायें प्रागैतिहासिक काल से लेकर अभी तक मानव की शरण स्थली हैं । आदिमानव की क्रीड़ा स्थली "भीमबैठका" एवं "पुतलीखोह " इन्ही उपत्तिकाओं में स्थित हैं !

वैसे तो नर्मदा का हर कंकड़ शंकर कहा जाता है परन्तु ओम्कारेश्वर के पास धार कुण्डी प्रपात में पाए जाने वाले शिवलिंग नर्मदेश्वर के रूप में सर्वत्र पूजे जाते हैं ! उछल कूद करते हुए बहना एवं कलरव करना नर्मदा की अपनी विशेषता है इसीलिए रव यानी शोर करने के कारण महाभारतकार ने इसे "रेवा " का नाम दिया है !

वर्तमान में जबलपुर के पास बरगी, खंडवा के पास इंदिरा सागर व् महेश्वर एवं मध्य प्रदेश गुजरात की सीमा पर सरदार सरोवर परियोजनाओं के माध्यम से नर्मदा को बांधकर हजारों एकड़ जमीन को सिंचित किया जा रहा है । सरदार सरोवर से कच्छ के चिर प्यासे रण तक नर्मदा जल पहुचाया जा चुका है। भारत बर्ष की अन्य नदियों की तुलना में इस नदी का जल अभी भी स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित है तथा अभी भी इसके किनारे तपोवनो की तरह प्रतीत होते हैं । तभी तो इस नदी को माँ क रूप में पूजने वाले लाखों कंठ प्रतिदिन गाते हैं,

"त्वदीय पाद पंकजम , नमामि देवी नर्मदे "


०१/०८ /०७

"ओ मेरे प्रभु "


जब मेरी कोई इच्छा शेष नहीं,
जब मेरा कोई अहंकार नहीं ,
तब बस तेरी ही इच्छा पूर्ण हो , ओ मेरे प्रभु!

तेरी हाँ में हाँ , तेरी ना में ना,
अब तो राजी हूँ बस , रजा में तेरी ,
अहंकार बस अकड़ता रहा बहुत देर तक,
अब तो तेरी ही इच्छा पूर्ण हो ओ मेरे प्रभु !

अणु में भी तू , विभु में भी तू ,
जगती के कण कण में बस तू ही तू ,
जब सर्वत्र व्याप्त है बस एक तू ,
तब तेरी ही इच्छा पूर्ण हो ओ मेरे प्रभु !!

लगा आनंद बरसने अविरल ,
रोम रोम होने लगा विव्हल ,
वाणी है गदगद मन प्रफुल्लित ,
अब तो बस तेरी ही इच्छा पूर्ण हो ओ मेरे प्रभु !!


२५/१०/०८

विरासत


आज गाता हूँ फिर, में उसी गीत को |
गाया था जो पहले, स्वयं के लिए ||
क्योंकि सत्य ही शिव, सुन्दर व् शास्वत भी है,
इसीलिए दुहराता हूँ इसे अब सभी के लिए |
सौ बर्ष जीवन व्यर्थ परमार्थ बिन , जिसे जितना मिले, श्रेष्टता से जियो |
कर्म करते हुए सौ बर्ष तक जियो , धर्म धरते हुए सौ बर्ष तक जियो ||

पंचतत्वों से मिलकर ये काया बनी,
नश्वर है तो , मिटेगी कभी न कभी |
क्षण क्षण है जीवन , तो प्रतिक्षण है मृत्यु भी ,
कल की ना सोचो बस अभी को जिओ !
पाना अमरत्व है यदि संसार में, तो दूसरों के लिए भी जियो |
कर्म करते हुए सौ बर्ष तक जियो ,धर्म धरते हुए सौ बर्ष तक जियो ||

कथनी सरल है पर करनी कठिन ,
परमार्थ पथ मांगता बलिदान है !
तप, त्याग, संयम से जीवन सधे ,
बस राह उसकी बड़ी आसान है!
कष्ट सहकर भी बस भलाई करो , अब से नया ऐसा जीवन जियो |
कर्म करते हुए सौ बर्ष तक जियो ,धर्म धरते हुए सौ बर्ष तक जियो ||

बिचारो, उसने कैसा ये नियमन किया ,
जिसकी जितनी जरुरत उसको उतना ही पैदा किया |
है वायु , जल , अन्न , वस्त्र आवास जरुरी तो ,
उनको क्रमशः उतना सुलभ भी किया |
आवश्यकताएं पूरी करो कर्म से , विलासिता का जीवन कभी न जियो |
कर्म करते हुए सौ बर्ष तक जियो ,धर्म धरते हुए सौ बर्ष तक जियो ||

सुकरात, ईसा , मोहम्मद की कहानी सुनो ,
बुद्ध , महावीर , आचार्य शंकर की वाणी सुनो |
सिख गुरुओं व क्रांतिवीरों की क़ुरबानी सुनो ,
विवेकानंद , दयानंद , रामतीर्थ की जवानी सुनो ||
टेरेसा सा जीवन नहीं है सरल , फिर भी जितना हो सार्थक उसे ही जियो|
कर्म करते हुए सौ बर्ष तक जियो ,धर्म धरते हुए सौ बर्ष तक जियो |
|

कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छ्त शरदः शतम|
जीवेत शरदः शतम, जीवेत शरदः शतम||


०६/ १२/२००८


मेरी लाड़ली बेटी

कोमल हंसी, नन्हे कदम, तोतले से शब्द तुम्हारे
उल्लास से भरते थे मुझे कि मेरी बेटी हो तुम
शाम को जब ऑफिस से आता तो
दौड़ कर पैरों से लिपट जाती थी तुम
छुट्टी के दिन जब मैं अखबार पढ़ता
तब चुपके से आकर गोद में बैठ जाती थी तुम
जब घुमाने ले जाता, झूले झुलाता
तो खिलखिलाती हंसी से मन मोह लेती थी तुम
ये यादें हैं उन लम्हों की
जब मेरी नन्ही सी बेटी थी तुम
और लोगों के लिए बड़ी ,
पर मेरे लिए छोटी थी तुम
अब जब फ़ोन करता हूँ, तो इक आस सी होती है
तुम्हारी चहकती आवाज़ सुनने की प्यास सी होती है
आज मेरी बेटी रम गई है, इक नयी दुनिया, नए ख्वाबों में,
वह खो गई है कहीं,जो चहकती थी मेरी बाँहों में,
तुम जो पीछे छोड़ गई हो अपने बचपन की मीठी यादों को
आज भी उन पलों को जीता हूँ, याद करके तुम्हारी बातों को
एक ही दुआ है बस, कि सदा मुस्कुराना,
कैसी भी हो मुश्किल, कभी न डगमगाना,
हिचकना न बिलकुल, मेरे पास आना,
मैं तुम्हारा पिता
और वह परमपिता सदा तुम्हारे साथ है
हमारे लिए हर समय, वही प्यारी सी छोटी हो तुम,
मेरी लाड़ली बेटी हो तुम
मेरी लाड़ली बेटी हो तुम..

पहचानो कौन?

हमारे गर्भ में आते ही,
खिलाता, पिलाता, दुलारता है अनवरत,
जन्मते ही भर देता है माँ की छाती में अमृत,
अबोध शिशु की क्षत्र छाया बन साथ निभाता है कोई,
पहचानो कौन?

बरसात आते ही,
मार्ग पंकमय व कंटकाकीर्ण हो जाते हैं,
विषैले जीव भी बाहर निकल आते हैं,
तब हमारे नंगे पैरों को विषधरों से बचाता है कोई,
पहचानो कौन?

भादों की काली रात में,
घनघोर जंगल में भटके लकडहारे को,
जब हवाएं भी सांय सांय कर डराती हैं,
तब उसके कंधे पर हाथ रख साहस बंधाता है कोई,
पहचानो कौन?

झंझावात में फंसे नाविक की,
भुजाएं बेदम होने लगती हैं थककर जब,
पाल, पतवार और सहारे टूट जाते हैं सब,
तब उसके साहस को ललकार कर किनारे तक पहुंचाता है कोई,
पहचानो कौन?

असाध्य रोगों से ग्रसित रोगी को,
डॉक्टरों के दल निराश कर देते हैं जब,
वैद्य व विशारद भी हताश कर देते हैं तब,
रोगी को प्यार की झप्पी दे, चैन की नींद सुलाता है कोई,
पहचानो कौन?

वह सर्व शक्तिमान सच्चिदानंद प्रभु,
जो अणु से विभु तक, कण कण में व्याप्त है,
हमारा परम मित्र हर पल हमारे साथ है,
कभी कभी स्मरण के अवसर देकर हमसे कहता है वही,
पहचानो कौन?

मित्र को पत्र

मित्र को पत्र

~ 1 ~


हम दोनों सायुज्य सखा थे, जैसा वेदों ने बतलाया,
एक साख पर दोनों बैठे, एक अंशी एक अंश कहाया |
तू तो मात्र रहा द्रष्टा ही, पर मैंने फल खाया,
फल खाकर के बना भोक्ता, कर्तापन गहराया |
अहंकार का बीज उगा और माया ने जाल बिछाया,
लोभ मोह और काम क्रोध ने मुझको घोर फंसाया |
बहुत बार तूने समझाया, पर मैं समझ न पाया,
भव सागर के भंवर चक्र में, गहरा आन समाया |
मेरी नादानी सह सहकर भी, तूने न बिसराया,
परम सखा, बस इसी बात पर, आज कंठ भर आया |
रुंधे गले और भरे ह्रदय से, अहोभाव में आया,
मित्र मेरे बस इसीलिए, अब कागज़ कलम उठाया |
बिना कहे ही सब कुछ जाने, तुझसे कौन दुराया,
इसीलिए तो घट-घट वासी, अंतर्यामी कहलाया |
पर तू तो सायुज्य सखा है, कहे बिन रहा न जाया,
इसीलिए आज कहूँगा वह सब, जो भी दिल में आया |


~ 2 ~

"अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है?" था किसी कवि ने गाया,
पर प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल ने, सच्चा हाल बताया |
सडकें, बिजली, स्वास्थ्य नहीं कुछ, न शिक्षा का साया,
ऐसे ही लाखों ग्रामों में से, जन्म एक में पाया |
खपरैलें लड़ती वर्षा से, शीत में जाड़ा छाया ,
ग्रीष्म में लू की लपटें झेलीं, ऐसा बचपन पाया |
कृषक पिता के धूल धूसरित, चरणों में शीश नवाया,
पढ़ा हुआ सब याद रहा, तो बुद्धिमान कहाया |
तूने जीवन भर बिन संसाधन, प्रथम स्थान दिलाया,
मैं मूरख तेरी महिमा को, फिर भी समझ न पाया |
एक पहुंचविहीन ग्राम से, तूने दिल्ली तक पहुँचाया,
तेरी कृपा सदा बरसी है, पर मैं समझ न पाया |
कृषक पुत्र इस ठेठ "गँवार" को, "गुदड़ी का लाल" बनाया,
पर परम सखे तेरी करुणा को, मैंने ही बिसराया |
तेरी सतत कृपा वर्षा का, सदा रहा मुझ पर साया,
दग्ध ह्रदय में इसीलिए तो, अहोभाव भर आया |


~ 3 ~

आजीविका की प्रबल दौड़ में, लाखों को गिरते पाया,
पर मुझको तो कृपा तेरी ने, सदा श्रेय दिलवाया |
एक नहीं, कई कई अवसर दे, तूने मान बढ़ाया,
फिर भी परम कृपा को तेरी, सखे समझ न पाया |
श्रेय मिले, सम्मान मिले, ऐसा जीवन पथ दिखलाया,
पर तेरी महिमा झुठलाकर, मैं झूठा इतराया |
अधिकारी बन राजदण्ड ले, था बेहद इठलाया,
राज्याधिकार के प्रबल दंभ ने, पाखंडों में उलझाया |
गर्वपूर्ण तर्जनी ऊँगली से, लोगों को नाच नचाया,
फिर भी तूने आँख न फेरी, अजब सखे तेरी माया |
भव सागर के भंवरों को जब जीवन का खेल बनाया,
कल्मष कषाय से रंग गयी चादर, जिसपर मैं इतराया |
तूने भेजे बहुत संदेशे, पर मैं तो था बौराया,
संदेशों की क्या बिसात, मैंने तुझको ही झुठलाया |
पतित हुआ जब शाश्वत पथ से, तब भी न शरमाया,
सच्चे मित्र तूने तो मुझको, फिर भी न बिसराया |


~ 4 ~

फिर एक दिन तेरी करुणा से, पौ फटी और दिन आया,
'लौट के बुद्धू घर आ जाए' ऐसा तूने मार्ग दिखाया |
जीवन का पूर्वार्ध गया, तब सही मार्ग को पाया,
परमारथ ही सच्चा स्वारथ है, समझ देर से आया |
तेरे पथ पर कदम बढ़ाते, डगमग डगमग आया,
लोभ, मोह, मद और मत्सर ने, बार बार भरमाया |
भव सागर के दल में फंसकर, क्या कोई निकल भी पाया,
पर यह तो तेरा ही संबल था, जिससे मैं बाहर आया |
जग में तो हँस हँस कर जीया, एकान्त में रोना आया,
अहंकार के नागपाश ने, बार बार बंधवाया |
भौतिकता की चकाचौंध से, जी भर के टकराया,
काम, क्रोध, मद, लोभ से जूझा, फिर भी मार न पाया |
ये तो मित्र तेरी ताकत थी, जो कुछ मैं कर पाया,
मैं अज्ञानी कृपा तेरी से, तुझे समझ अब पाया |
मैली चादर धोते धोते, थक कर शरण में आया,
अब तू तारे या तू मारे, तू जाने तेरी माया |


~ 5 ~

कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी, जोड़ जोड़ हर्षाया,
महल अटारी नौकर चाकर, देख देख इतराया |
फिर एक दिन तेरी ठोकर से, सत्य सामने आया,
जीवन ही जब है क्षण भंगुर, तब कहाँ टिकी रहे माया |
लगे बिछुड़ने संगी साथी, जिन पर था इतराया,
खो गयी चमक स्वर्ण की सारी, अब तो इसे लोष्ठवत पाया |
मित्र,बंधु, भगिनी, सुत, दारा, जिनसे था मोह बढ़ाया,
सब हैं इस काया के साथी, काया के रहते तक माया |
मिट्टी को मिट्टी में जाना, था यह सत्य भुलाया,
जीव का साथी एक तू ही है, परम सखा कहलाया |
तू असीम है, तू अनादि है, घट-घट मध्य समाया,
परम श्रेष्ठ तू, परम सत्य तू, सब तेरी ही माया |
तू ही सत है, तू चेतन है, परमानन्द कहाया,
तेरे चिंतन से जीवन में, बस आनंद समाया |
यद्यपि मैं सायुज्य सखा हूँ, माया में था भरमाया,
पर जैसा हूँ, बस तेरा हूँ, शरण तेरी ही आया |


~ 6 ~

भरे ह्रदय, अवरुद्ध कंठ से, एक यही विनती मेरी,
बस अहोभाव से धन्यवाद है, और नहीं इच्छा मेरी |
सब कहते हैं, दीन हीन के अश्रुनीर में सदा उपस्थिति तेरी,
पतितों की संताप पीर में, कभी ना करता देरी |
जब मैं जागा हुआ सवेरा, तब ही आँख खुली मेरी,
घोर निशा में हुई चूक की, क्षमा प्रार्थना यह मेरी |
अब तो सत्य मुझे कहने दे, जीवन रहा झूठ की ढेरी,
झूठ सत्य की बात कहाँ, जब हो गयी कृपा तेरी |
तू दीनानाथ है, दीनबंधु है, बहुत सुनी महिमा तेरी,
पतित पावन कहलाता है तो कर अब पवनी मेरी |
जितना चाहूँ रुदन करूँ मैं, यह तो मर्ज़ी मेरी,
जी भर अश्रु बहा लेने दे, बह जाए भूलों की ढेरी |
तू परमात्मा मैं जीवात्मा, बस इतना भेद हुआ बैरी,
करके मिलन 'एक' ही कर दे, रहे ना अब तेरी मेरी |
परम सखा अब यही विनय, सुन ले विनती मेरी,
फिर से तू सायुज्य बना ले, बैठूं ड्योढ़ी तेरी ||







"अस मैं अधम सखा सुन , मोहु पर रघुबीर"



"अस मैं अधम सखा सुन , मोहू पर रघुबीर
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर "||

इस दोहे को जब भी मैं गाता हूँ तब मेरा गला भर आता है. श्री हनुमान जी महाराज भी विभीषण को ऐसा सुनाते हुए खूब रोये थे परन्तु मेरा रोना हनुमान जी के रोने की वजह से नहीं स्वयं की वजह से होता है. मुझे नहीं मालूम की हनुमान जी महाराज अपने को अधम क्यों कह रहे थे क्योंकि मैं उनके अन्तरंग को नहीं जानता लेकिन मैं अपनी अधमता को भली भांति जानता हूँ और उसके उपरांत भी भगवान की जितनी कृपा वर्षा मेरे उपर हुई है उसको याद करके ही मैं रोता हूँ. प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ स्वयं ही अपने बारे मैं पूरी तरह जानता है दूसरा कोई नहीं. यही आत्मविश्लेषण करके मैं जान पाता हूँ कि मेरे जैसे अधम पर भी भगवान ने इतनी कृपा वर्षा की है कि मेरे पास आंसुओं के अलावा भला क्या रह जाता है.

मेरा जन्म जिस गाँव मैं हुआ उसमे तब प्राथमिक विद्यालय भी नहीं था. पक्की सड़क १० किमी. दूर थी, बिजली तो गाँव मैं तब पहुंची जब मैं २५ वर्ष का हो चुका था. कच्चे कीचड युक्त रास्तों से होकर दूसरे गाँव में पढने जाना, ११ वर्ष की उम्र से पढाई हेतु घर छोड़कर बाहर रहने लगना वह भी किसी छात्रावास मैं नहीं अपितु किराये की कच्ची कोठरी में, अपने हाथ से मिटटी के चूल्हे में खाना पकाना, अपने बर्तन और कपडे साफ़ करना वगैरह सब काम स्वयं करना होते थे. कृषक माता - पिता खेतों में मेहनत कर रोजी रोटी चलाते थे अतः जब भी समय मिलता उनके कार्यों में हाथ बटाता रहता था. कहने का तात्पर्य यह कि पढाई के लिए कोई अनुकूलता न होने पर भी हमेशा कक्षा में प्रथम आता था. जो पढता एक बार में याद हो जाता अपने विषय के अलावा अन्य विषयों को पढ़कर एक बार में समझने की क्षमता आखिर कहाँ से आई? क्या यह प्रभु कि अतिरिक्त कृपा वर्षा नहीं थी? हे प्रभु यदि इस पर भी में गद गद होकर कृतज्ञता ज्ञापित न करूँ तो मुझसा अभागा कौन होगा?

पढाई के सैकडों किस्से हैं जिनसे प्रभु की विशेष कृपा के अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं. एक बड़ी बात बताऊँ मैंने अपनी एम् . एस . सी . की डिग्री दो वर्ष के स्थान पर एक वर्ष में ही पूर्ण कर ली थी वह भी चार में से चार ओ . सी . जी. ऐ. (सभी विषयों में A ग्रेड ) और अपनी कक्षा में प्रथम स्थान के साथ और यह भी उन दिनों की बात है जब भोजन के अभाव में अनेक बार मात्र पानी पीकर डकार ले लेना सामान्य बात थी इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी दो वर्ष की डिग्री एक वर्ष में पूर्ण कर लेना क्या ईश्वरीय चमत्कार नहीं है ?

नौकरी की खोज करते समय तो ऐसा लगता था की किसी भी नौकरी के लिए परीक्षा देना ही चयन हो जाना है. जब मैंने अपनी वर्तमान नौकरी ज्वाइन की थी तब मेरे पास और नौकरियों के नियुक्ति पत्र भी थे. परमात्मा की कृपा वर्षा इस रूप में भला कितने लोगों को नसीब होती है?

जिन परिस्थितियों में पला बढा तथा जिन व्यक्तियों के संपर्क में रहा वे भले लोग तो थे ही, ज्यादातर सच्चे हृदय के कर्मठ किसान भी थे, उनकी साधन-हीनता एवं अज्ञानजनित समस्याग्रस्तता हृदय को कचोटती रहती थी इसीलिए २० वर्षों तक नौकरी करते हुए इतने अधिक लोगों के काम आ सका क्या यह ईश्वर की विशेष कृपा वर्षा नहीं है? एक और संयोग यदि धर्म पत्नी इतनी अच्छी सहयोगी व विशाल हृदया न होती तो क्या मैं किसी की सेवा कर पाता परन्तु प्रभु ने इतनी अच्छी पत्नी दी जिसने कभी किसी अतिथि को भगवान् से कम नहीं समझा ,राह चलते को भी बुलाकर भोजन कराया. ऐसी विशाल हृदया पत्नी क्या ईश्वर की कृपा से नहीं मिली? मेरे माता-पिता भाई व उनकी पत्नियाँ एवं उनके बच्चे इतने सहयोगी व सरल हृदय न होते तो क्या मैं किसी के काम आ पाता? इतने अच्छे परिजन सिर्फ ईश्वर कृपा से ही मिल सकते हैं ! मेरे बच्चे भी सहज ,आज्ञाकारी एवं मेधावी हैं तो यह भगवत कृपा नहीं तो और क्या है ?

भगवान ने सेवा के लिए दिल दिया तो पर्याप्त साधन भी दिए. उसी अनुपात में परिजन व मित्रों का सहयोग भी दिया . हे मेरे प्रभु तूने क्या नहीं दिया? मुझे तो कोई कमी नजर ही नहीं आती. इतना सब तूने मुझ जैसे एक गाँव के गंवार को बख्शा. हे परमात्मा इसे भला मैं कैसे भूल जाऊँ? हे ईश्वर मैं कृतकृत्य हूँ, तेरी कृपा का कोई पारावार नहीं है. बचपन से ही शरीर मैं समस्यायें रहीं! हर्निया की समस्या, फिर अपेंडिक्स की बीमारी, पेट की समस्या वगैरह तो लगी ही रही और वर्तमान में प्राणघातक बीमारी से जूझ रहा हूँ. इन सब के बावजूद ये समस्याएं कभी मेरी सेवा साधना मैं बाधा नहीं बनी तो यह ईश्वर कृपा से ही संभव हुआ. जीवन यदि १०० वर्ष भी मिला होता परन्तु किसी के काम न आ सका होता तो उस जीवन का मैं क्या करता? मेरे प्रभु तूने जितनी भी जिन्दगी दी उसमे ज्यादा से ज्यादा किसी के काम आ सका तो कम जीवन भी पर्याप्त है. हे परमात्मा तूने मुझे कीडे मकोडों की तरह सिर्फ अपने लिए जीने से बचाकर औरों की मदद करने का मौका दिया तो भी तेरा धन्यवाद न करूँ तो कृतघ्न न होऊंगा? हे परमात्मा न मैंने बहुत जप तप किया न बहुत दान पुण्य किया फिर भी तूने मेरा जीवन दूसरो के लिए इतना उपयोगी बनाया मैं भला क्यों न गदगद होकर गुनगुनाऊं -

"अस मैं अधम सखा सुन ,मोहू पर रघुबीर |
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर ||"

(भावार्थ -हे मित्र सुनो ,मैं इतना अधम हूँ इस पर भी भगवन ने मेरे उपर कृपा करके मुझे सेवा का मौका दिया है ! ऐसा कहकर कपि (हनुमान जी ) गदगद हो गए तथा उनकी आँखों में आंसू भर आये.)

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